Thursday, October 7, 2010

"सही शब्दों का प्रयोग" या "शब्दों का सही प्रयोग"?

विचित्र होते हैं ये शब्द भी। प्रयोग के अनुसार सामने वाले को मोह सकते हैं तो कभी अर्थ का अनर्थ बनाकर भड़का भी सकते हैं। लखनवी शैली में यदि युवक युवती से "खादिम हूँ आपका" कहता है तो युवती प्रसन्न होती है किन्तु भूल से भी यदि "खादिम" के स्थान पर "खाविंद" शब्द का प्रयोग हो जाए अर्थात् युवक "खाविंद हूँ आपका" कह दे तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं कि युवती पर क्या प्रतिक्रया होगी। लखनवी शैली की बात चली है तो आपको बता दें कि एक नवाब साहब ने निर्धन कवि को अपने महल में निमंत्रित किया था। नवाब साहब के द्वारा बारम्बार अपने शानदार महल को "गरीबखाना" कहने पर निर्धन कवि सोचने लगा कि जब ये अपने इतने बड़े महल को "गरीबखाना" कह रहे हैं तो मैं अपनी झोपड़ी को भला क्या कहूँ? अन्त में बेचारे ने नवाब साहब से कहा, "आपके यहाँ आकर बहुत प्रसन्नता हुई, आप भी कभी मेरे 'पायखाना' में आने का कष्ट कीजिएगा।"

जहाँ साहित्य तथा सामान्य बोल-चाल की भाषा में "सही शब्दों के प्रयोग" को उचित माना जाता है वहीं कानूनी दाँव-पेंचों वाले अदालती मामले में "शब्दों के सही प्रयोग" ही उचित होता है। हम जब बैंक अधिकारी थे तो हमारे द्वारा स्वीकृत एक ऋण का प्रकरण अदालत में चला गया और हमें गवाह के तौर पर पेश किया गया। ऋणी के वकील ने जब हमसे पूछा कि 'क्या आपने इसे ऋण दिया था?' तो हमारा जवाब था कि 'ऋण के लिए इसने आवेदन दिया था जिसे हमने स्वीकृत किया था।' वकील के प्रश्न के उत्तर में यदि हमने सिर्फ "हाँ" कहा होता तो वकील उसका अर्थ यही निकालता कि बैंक ने ही ऋण दिया था, ऋणी ने ऋण माँगा नहीं था। कानूनी मामलों में "शब्दों का सही प्रयोग" बहुत जरूरी होता है अन्यथा कभी भी अर्थ का अनर्थ निकाला जा सकता है।

अब जरा अंग्रेजी के इस वाक्य पर गौर फरमाएँ:

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उपरोक्त वाक्य में "सेकंड" शब्द का प्रयोग तीन बार हुआ है और तीनों ही बार उसका अर्थ अलग है, याने कि अंग्रेजी का यमक अलंकार!

शब्द चाहे किसी भी भाषा के हों, एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं जिनका गलत प्रकार से प्रयोग होने पर जहाँ अर्थ का अनर्थ का अनर्थ होने की सम्भावना होती है वहीं उन अर्थों का सही प्रयोग होने पर भाषा का रूप निखर आता है। हिन्दी भाषा तो शब्दों तथा उनके अनेक अर्थों के मामले में अत्यन्त सम्पन्न है। विश्वास न हो तो "अमरकोष" उठा कर देख लीजिए, आपको एक ही शब्द कें अनेक अर्थ तथा उसके अनेक विकल्प मिल जाएँगे। उदाहरण के लिए अमरकोष के अनुसार "हरि" शब्द के निम्न अर्थ होते हैं:

यमराज, पवन, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, विष्णु, सिंह, किरण, घोड़ा, तोता, सांप, वानर और मेढक

और अमरकोष में ही बताया गया है कि विश्वकोष में कहा गया है कि वायु, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, यम, उपेन्द्र (वामन), किरण, सिंह घोड़ा, मेढक, सर्प, शुक्र और लोकान्तर को 'हरि' कहते हैं।

एक दोहा याद आ रहा है जिसमें हरि शब्द के तीन अर्थ हैं:

हरि हरसे हरि देखकर, हरि बैठे हरि पास।
या हरि हरि से जा मिले, वा हरि भये उदास॥

 (अज्ञात)

पूरे दोहे का अर्थ हैः

मेढक (हरि) को देखकर सर्प (हरि) हर्षित हो गया (क्योंकि उसे अपना भोजन दिख गया था)। वह मेढक (हरि) समुद्र (हरि) के पास बैठा था। (सर्प को अपने पास आते देखकर) मेढक (हरि) समुद्र (हरि) में कूद गया। (मेढक के समुद्र में कूद जाने से या भोजन न मिल पाने के कारण) सर्प (हरि) उदास हो गया।

उपरोक्त दोहा हिन्दी में यमक अलंकार का एक अनुपम उदाहरण है।

अब थोड़ा जान लें कि यह यमक अलंकार क्या है? जब किसी शब्द का प्रयोग एक से अधिक बार होता है और हर बार उसका अर्थ अलग होता है तो उसे यमक अलंकार कहते हैं, जैसे किः

कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
ये खाए बौरात हैं वे पाए बौराय॥


भूषण कवि ने की निम्न रचना में तो हर पंक्ति में यमक अलंकार का प्रयोग किया गया हैः

ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहन वारी,
ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करें कंद मूल भोग करें
तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं।
भूषन शिथिल अंग भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वै बिजन डुलाती हैं।
‘भूषन’ भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती हैं॥


यमक अलंकार के विपरीत, जब किसी शब्द का सिर्फ एक बार प्रयोग किया जाता है किन्तु उसके एक से अधिक अर्थ निकालते हैं तो "श्लेष" अलंकार होता है, उदाहरण के लिएः

पानी गए ना ऊबरे मोती मानुष चून।

तो ऐसी समृद्ध भाषा है हमारी मातृभाषा हिन्दी! इस पर हम जितना गर्व करें कम है!

चलते-चलते

डॉ. सरोजिनी प्रीतम की एक हँसिकाओं में यमक और श्लेष अलंकार के उदाहरणः

यमकः

तुम्हारी नौकरी के लिए
कह रखा था
सालों से सालों से!

श्लेषः

क्रुद्ध बॉस से
बोली घिघिया कर
माफ कर दीजिये सर
सुबह लेट आई थी
कम्पन्सेट कर जाऊँगी
बुरा न माने गर
शाम को 'लेट' जाऊँगी।

Wednesday, October 6, 2010

मारो स्साले को जूता... याने कि जुतियाना

किसी को जुतियाने का चलन एक लम्बे काल से चला आ रहा है। यद्यपि आज के जमाने में अनेक प्रकार के हथियार उपलब्ध हैं किन्तु एक हथियार के रूप में जूते का महत्व आज भी बना हुआ है। जूता जहाँ अस्त्र है वहीं शस्त्र भी है क्योंकि किसी को मारने के लिए इसका प्रयोग इसे हाथ में पकड़े-पकड़े भी किया जा सकता है और फेंक कर भी। किसी को जूता मारने पर जहाँ उसे शारीरिक पीड़ा होती है वहीं उसके भीतर अपमानित होने का भाव भी उत्पन्न होता है जिसके कारण उसे मानसिक संत्रास भी मिलता है।

लम्बे समय से जुतियाने का प्रयोग होने के कारण जुतियाने के अनेक तरीके भी ईजाद हो चुके हैं किन्तु 'श्रीलाल शुक्ल' जी ने "राग दरबारी" में जुतियाने का जो तरीका बताया है वही तरीका हमें जुतियाने का सबसे अच्छा लगता है। हमारे विचार से तो उससे अच्छा तरीका और हो ही नहीं सकता। उनके तरीके के अनुसार यदि किसी को जुतियाना हो तो उसे गिन कर 100 जूते लगाने चाहिये, न एक कम और न एक ज्यादा। और गिनती के 93-94 तक पहुँचने पर भूल जाना चाहिये कि अब तक कितने जूते लग चुके हैं। अब भूल गये तो फिर से जुतियाना तो शुरू करना ही पड़ेगा।

जब भी इंसान को गुस्सा आता है, किसी न किसी को जुतियाने का मन हो ही जाता है। अक्सर तो होता यह है कि गुस्सा किसी और पर आता है और जुतियाया कोई और जाता है। अब आप अपने से जादा ताकतवर को नहीं जुतिया सकते ना, पर गुस्सा शांत करने के लिये जुतियाना जरूरी भी है। इसीलिये जब आफिस में बॉस और घर में बीबी पर गुस्सा आता है तो चपरासी और नौकर ही जुतियाये जाते हैं।

राजनीति, खास करके आज के जमाने की राजनीति, और जुतियाने में चोली दामन का सम्बन्ध है। जिस नेता के पास जुतियाने वाले चम्मचों की टीम नहीं होती, वास्तव में वह असली नेता ही नहीं होता। जुतियाना नेताओं के चम्मचों का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। शक्ति प्रदर्शन करके अपना बड़प्पन स्वीकार करवाने का एक मात्र माध्यम जुतियाना ही है।

जुतियाना शब्द तो जूते से बना है। तो प्रश्न यह उठता है कि जब इस संसार में जूता नहीं हुआ करता था तो लोग भला कैसे अपना गुस्सा उतारते रहे होंगे? शायद जूते की जगह खड़ाऊ लगा कर। तो 'जुतियाने' को अवश्य ही 'खड़ुवाना' कहा जाता रहा होगा। और शायद उस जमाने में नेता के चम्मच के बजाय राजाओं के मुसाहिब और खुशामदी लोग 'खड़ुआते' रहे होंगे।

जुतियाने का सबसे बढ़िया प्रयोग तो फिल्म 'शोले' में किया गया था संजीव कुमार के द्वारा अमजद खान को बड़े बड़े कील वाले जूते खिलवा कर। सच्ची बात तो यह है कि जो जितना अधिक जुतियाने का प्रयोग करेगा वह उतना ही आगे बढ़ेगा। हम तो आज तक आगे नहीं बढ़ पाये क्योंकि हमें जुतियाना ही नहीं आता।

Tuesday, October 5, 2010

खाना तो वो होता है जिसे देखकर ही मुँह में पानी आ जाए


पूरन पूरी हो या दाल बाटी, तंदूरी रोटी हो या शाही पुलाव, पंजाबी खाना हो या मारवाड़ी खाना, जिक्र चाहे जिस किसी का भी हो रहा हो, केवल नाम सुनने से ही भूख जाग उठती है। भारतीय भोजन की अपनी एक विशिष्टता है और इसी कारण से आज संसार के सभी बड़े देशों में भारतीय भोजनालय पाये जाते हैं जो कि अत्यंत लोकप्रिय हैं। विदेशों में प्रायः सप्ताहांत के अवकाशों में भोजन के लिये भारतीय भोजनालयों में ही जाना अधिक पसंद करते हैं।

इस बात में तो दो मत हो ही नहीं सकता कि भारतीय खाना 'स्वाद और सुगंध का मधुर संगम' होता है!

स्वादिष्ट खाना बनाना कोई हँसी खेल नहीं है। इसीलिये भारतीय संस्कृति में खाना बनाने को कला माना गया है अर्थात् खाना बनाना एक कला है। भारतीय भोजन तो विभिन्न प्रकार की पाक कलाओं का संगम ही होता है! इसमें पंजाबी खाना, मारवाड़ी खाना, दक्षिण भारतीय खाना, शाकाहारी खाना, मांसाहारी खाना आदि सभी सम्मिलित हैं।

भोजन की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि यदि पुलाव, बिरयानी, मटर पुलाव, वेजीटेरियन पुलाव, दाल, दाल फ्राई, दाल मखणी, चपाती, रोटी, तंदूरी रोटी, पराठा, पूरी, हलुआ, सब्जी, हरी सब्जी, साग, सरसों का साग, तंदूरी चिकन न भी मिले तो भी आपको आम का अचार या नीबू का अचार या फिर टमाटर की चटनी से भी भरपूर स्वाद प्राप्त होता है।

भारत में पाककला का अभ्युदय हजारों वर्षों पहले हुआ था। वाल्मीकि रामायण में निषादराज गुह के द्वारा राम को भक्ष्य, पेय, लेह्य आदि, जिनका निर्माण पकाये गए अन्नादि से होता था, भेंट करने का वर्णन आता है। इसका अर्थ यह हुआ कि रामायण काल में भी भारत में भोजन बनाने की परम्परा रही है। सुश्रुत के अनुसार भोजन छः प्रकार के होते हैं – चूष्म, पेय, लेह्य, भोज्य, भक्ष्य और चर्व्य। भोज्य पदार्थों को सुश्रुत के द्वारा इस प्रकार से विभाजन भी भारत में पाककला के अत्यन्त प्राचीन होने को इंगित करता है। यहाँ तक माना जाता है कि भारत में पाककला उतना ही पुराना है जितना कि स्वयं मनुष्य।

इन हजारों वर्षों के दौरान भारत में अनेकों शासक हुए जिनके प्रभाव से भारतीय पाककला भी समय समय में परिवर्तित होती रही। विभिन्न देशों से आने वाले पर्यटकों का भी यहाँ के पाककला का प्रभाव पड़ता रहा। आइये देखें कि विभिन्न काल में भारतीय पाककला में कैसे कैसे परिवर्तन हुएः

माना जाता है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता के काल में, जो कि ईसा पूर्व 2000 का काल था, तथा उससे भी पूर्व भारत में भोजन पकाने की आयुर्वेदिक परम्परा थी। भोजन पकाने की यह आयुर्वेदिक परम्परा इस अवधारणा पर आधारित थी कि हमारे द्वारा भक्ष्य भोजन का हमारे तन के साथ ही साथ मन पर भी समुचित प्रभाव पड़ता है। इस कारण से उस काल में भोजन की शुद्धता पर अत्यधिक ध्यान दिया जाता था। भोजन में षट्‍रस, अर्थात मीठा, खट्टा, नमकीन, तीखा, कसैला एवं कड़वा, के सन्तुलन को भी महत्वपूर्ण माना जाता था।

ईसा पूर्व 1000 के काल में अनेक विदेशी यात्रियों का आगमन होना आरम्भ हो चुका था। इन यात्रियों की अपनी-अपनी अलग-अलग खाना बनाने की पद्धतियाँ हुआ करती थीं जिनका प्रभाव भारतीय पाककला पर पड़ते गया और भारत में खाना बनाने की विभिन्न प्रणालियाँ विकसित होती चली गईं।

ईसा पूर्व 600 में भारत में बौद्ध तथा जैन धर्म का आविर्भाव हुआ और इन धर्मों का समुचित प्रभाव भारतीय पाककला पर भी पड़ा। इस काल में मांस भक्षण तथा लहसुन एवं प्याज से बने भोज्य पदार्थों को त्याज्य मानने की परम्परा बनी।

मौर्य साम्राज्य तथा सम्राट अशोक के काल में, जो कि ईसा पूर्व 400 बौद्ध धर्म अपने चरम विकास पर पहुँचा तथा बौद्ध धर्म का प्रचार विदेशों में भी होने लगा। इस प्रकार से भारत से विदेशों में जाने वाले प्रचारकों के साथ भारतीय पाक प्रणालियाँ विभिन्न देशों में पहुँचती चली गईं। साथ ही उन प्रचारकों के वापस भारत आने पर अन्य देशों की भोजन पद्धतियाँ उनके साथ यहाँ आईं और उनका प्रभाव भारतीय पाककला पर पड़ा।

कहने का तात्पर्य है कि विभिन्न कालों में भारतीय पाककला पर विभिन्न प्रकार के प्रभाव पड़ते रहे तथा उसमें अनेक परिवर्तन होते चले गए। भारत में मुस्लिम साम्राज्य हो जाने पर भारतीय पाककला पर सबसे अधिक प्रभाव मुस्लिम खान-पान का ही पड़ा। उसके पश्चात् भारत में अंग्रेजों का अधिकार हो जाने के कारण भारतीय पाककला पर पश्चिमी प्रकार से खाना बनाने की विधियों का प्रभाव पड़ने लगा। आलू, टमाटर, लाल मिर्च आदि वनस्पतियों का, जिनके विषय में भारत में पोर्तुगीजों तथा अंग्रेजों के आने के पहले जानकारी ही नहीं थी, वर्चस्व भारतीय भोजन में बढ़ने लगा।

इस प्रकार से समय समय में अनेक परिवर्तन होने के कारण आज भारत में विभिन्न प्रकार से भोजन बनाने का प्रचलन है।

Sunday, October 3, 2010

लौंगा इलाइची का बीड़ा बनाया... जानें लौंग के बारे में

लौंग, जिसे कि लवांग के नाम से भी जाना जाता है,  Myrtaceae परिवार से सम्बन्धित एक पेड़ की सूखी कली को कहते हैं जो कि खुशबूदार होता है। दुनिया भर के व्यञ्जनों को बनाने में प्रायलौंग का प्रयोग एक मसाले के रूप में किया जाता है। लौंग का उद्गम स्थान इंडोनेशिया को माना जाता है। लौंग को अंग्रेजी में “क्लोव्ह” clove कहा जाता है जो कि लैटिन के शब्द clavus, जिसका अर्थ नाखून होता है, का अंग्रेजी रूपान्तर है। लौंग के नाखून के सदृश होने के कारण ही उसका यह अंग्रेजी नाम पड़ा। लौंग का उत्पादन मुख्य रूप से इंडोनेशिया, मेडागास्कर, भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका आदि देशों में होता है।

लौंग एक सदाबहार पेड़ है जिसकी ऊँचाई 8-12 मीटर तक होती है जिसके पत्ते बड़े-बड़े तथा दीर्घवृताकार होते हैं। लौंग
के पेड़ों के शाखों के अन्तिम छोरों में लौंग के फूल समूह में खिलते हैं। लौंग की कलियों का रंग खिलना आरम्भ होते
समय पीला होता है जो कि धीरे-धीरे हरा होते जाता है और पूर्णतः खिल जाने पर इसका रंग लाल हो जाता है। इन कलियों में चार पँखुड़ियों के मध्य एक वृताकार फल होता है।

हिन्दी के साथ ही साथ उत्तर भारत की अनेक भाषाओं में इसका नाम “लौंग” अथवा “लवांग” है जबकि तेलुगु और मलयालम, जो कि दक्षिण भारतीय भाषाएँ हैं, में इसे क्रमशः “लवांगम” और “ग्राम्पू” के नाम से जाना जाता है।

चूँकि लौंग के प्रयोग से भोजन सुस्वादु हो जाता है, सम्पूर्ण भारत में प्रायः लौंग का प्रयोग विभिन्न प्रकार के व्यञ्जन बनाने में होता है। लौंग को पान के साथ भी खाया जाता है, प्रायः पान के बीड़े में लौंग को खोंस दिया जाता है जिससे बीड़े की सुन्दरता भी बढ़ जाती है। भारत के कुछ क्षेत्रों में बिना लौंग वाला पान बीड़ा देने को अशुभ माना जाता है। लौंग की तासीर गर्म होने के कारण गर्मियों के दिनों में इसका प्रयोग कम किया जाता है। मसाला चाय बनाने के लिए भी लौंग का इस्तेमाल किया जाता है।

चीन और जापान में भी एक खुशबूदार पदार्थ के रूप में लौंग को महत्वपूर्ण माना जाता है।

यूरोप, एशिया और संयुक्त राज्य अमेरिका के कई क्षेत्रों में लौंग का प्रयोग एक प्रकार के सिगरेट, जिसे कि kretek कहा जाता है, बनाने के लिए भी किया जाता है।

आयुर्वेद में लौंग का प्रयोग अनेक प्रकार की आयुर्वेदिक औषधियों के बनाने में भी किया जाता है। लौंग का तेल एक महत्वपूर्ण आयुर्वेदिक औषधि है। चीन के साथ ही साथ पश्चिम के अनेक देशों में हर्बल दवाइयाँ बनाने के लिए लौंग का प्रयोग किया जाता है। लौंग में अनेक प्रकार के औषधीय गुण होते हैं। यह उत्तेजक, पाचक, मुँह के दुर्गंध को रोकने वाला, दंत क्षय का शमन करने वाला है। लौंग में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वाष्पशील तेल, वसा, विटामिन “सी”, विटामिन “ए” जैसे तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। अनेक रोगों के निदान के लिए आयुर्वेद में लौंग का प्रयोग चूर्ण, काढ़ा तथा तेल के रूप में किया जाता है।

आपको शायद यह जानकर आश्चर्य हो कि अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटेन में लौंग का मूल्य उसके वजन के सोने के बराबर हुआ करता था।

Friday, October 1, 2010

अपनी पसंद की फिल्में मुफ्त आनलाइन देखें

कुछ दिनों पहले सतीश पंचम जी ने फिल्म "पिया का घर" पर एक पोस्ट प्रकाशित किया था। इस बात में तो दो मत हो ही नहीं सकता कि "पिया का घर" एक स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने वाली फिल्म है। सतीश जी के पोस्ट की टिप्पणियों से पता चलता है कि बहुत सारे लोगों ने इस लाजवाब फिल्म को नहीं देखा है। इसलिए हमें इस पूरी फिल्म के नेट में उपलब्ध व्हीडियो को अपने "हिन्दी वेबसाइट" में उपलब्ध करवाना उचित लगा। आप इसे यहाँ देख सकते हैं

फिल्म "पिया का घर" पूरी फिल्म देखें

आज नेट में खोजने पर प्रायः अपनी पसंद की पूरी फिल्में मिल जाती हैं अतः हमें नेट में जहाँ कहीं भी अच्छी फिल्में उपलब्ध मिलेंगी, उन फिल्मों को हम अपने "हिन्दी वेबसाइट" में उपलब्ध करवाते रहेंगे। फिलहाल तो फिल्म "पिया के घर" के साथ ही हमारा एक और पसंदीदा फिल्म "बावर्ची" वहाँ पर उपलब्ध है जिसे देखने के लिए आप निम्न लिंक को क्लिक कर सकते हैं

फिल्म "बावर्ची" पूरी फिल्म देखें