Monday, June 7, 2010

तिकड़म से ही मिलती हैं टिप्पणियाँ

टिप्पणियाँ पाना भला किसे अच्छा नहीं लगता? ऊपर-ऊपर से भले ही हम कहें कि हम टिप्पणियों की परवाह नहीं करते पर जब हम अपने भीतर झाँकते हैं तो लगता है कि हमें भी टिप्पणियाँ पाने में खुशी होती है। हिन्दी ब्लोगिंग में टिप्पणियों के महत्व को इतना बढ़ा-चढ़ा दिया गया है कि प्रतीत होने लगा है कि हिन्दी ब्लोगिंग का मुख्य उद्देश्य मात्र टिप्पणी पाना ही है। हिन्दी ब्लोगरों के प्राण टिप्पणियों में ही बसते हैं। अधिकतर ब्लोगर जिन्हें टिप्पणियाँ नहीं मिलतीं या कम टिप्पणियाँ मिलती हैं, स्वयं को अधमरा सा महसूस करने लगते हैं क्योंकि नामी-गिरामी, बड़े तथा नंबर एक ब्लोगर वे ही माने जाते हैं जिनके पोस्टों में टिप्पणियों के अंबार लगे रहते हैं।

यदि आपने अच्छी पोस्ट लिखी है तो हो सकता है कि दो-चार टिप्पणियाँ बिना किसी प्रयास के मिल जायें किन्तु ढेर सारी टिप्पणियाँ बिना तिकड़म के मिलना मुश्किल ही नहीं असम्भव है। अब ये तिकड़म क्या होते हैं यह मत पूछियेगा। यदि पूछेंगे तो भी आपको जवाब नहीं मिलने वाला क्योंकि सभी के अपने-अपने तिकड़म होते हैं जो कि उनके बिजनेस सीक्रेट्स होते हैं। अक्सर छोटे-मोटे तिकड़म तो हम भी भिड़ाते हैं पर कल हमने अपने पोस्ट "वैदिक कर्मकाण्ड के सोलह संस्कार" के लिये कुछ भी तिकड़म जानबूझ कर नहीं भिड़ाया क्योंकि हम जानना चाहते थे कि क्या ऐसे भी कुछ लोग हैं जो सोलह संस्कारों को जानने की रुचि रखते हैं। नतीजा यह हुआ कि पोस्ट पूरी तरह से पिट गई। पसन्द के नाम पर शून्य रहा वह पोस्ट पर सौभाग्य से चार टिप्पणियाँ मिल गईं। किन्तु हम जानते हैं कि हमारे इस पोस्ट की उम्र मात्र चौबीस घंटे ना होकर बहुत लंबी है और ऐसे पाठक, जिन्हें सोलह संस्कारों के विषय में जानने की रुचि होगी, हमेशा सर्च इंजन से खोज कर आते रहेंगे हमारे इस पोस्ट में।

कभी-कभी संयोग से बिना तकड़म भिड़ाये भी अच्छी-खासी टिप्पणियाँ मिल जाती हैं क्योंकि हिन्दी ब्लोगिंग भी हिन्दी फिल्मों जैसा है जहाँ पर अच्छी फिल्में पिट जाती हैं और "जै संतोषी माँ" जैसी फिल्में सालों तक बॉक्स आफिस में हिट बनी रह जाती हैं। किन्तु ऐसा बार-बार नहीं बल्कि कभी-कभार ही होता है।

विषय आधारित ब्लोग्स को या तो टिप्पणियाँ मिलती ही नहीं हैं या फिर नहीं के बराबर मिलती हैं, शायद यही कारण है कि हिन्दी में विषय आधारित ब्लोग बनाने का चलन नहीं के बराबर है। हम तो सोचते थे कि ब्लोगिंग का उद्देश्य समाज, भाषा साहित्य आदि की सेवा करते हुए स्वयं का भी कल्याण करना है और इसीलिये हमने "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" जैसा विषय आधारित ब्लोग बनाया था। किन्तु आजकर जिस प्रकार से टिप्पणियाँ पाने के लिये के लिये घमासान मचा हुआ है उसे देखकर लगता है कि हमारी सोच बिल्कुल गलत है और ब्लोगिंग का उद्देश्य महज टिप्पणियाँ बटोर कर आत्म-तुष्टि पाना ही है। "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" अब अपनी समाप्ति की ओर है। इसके समाप्त होने पर हमने तुलसीकृत "रामचरितमानस" की पर ब्लोग बनाने का निश्चय किया था किन्तु अब इस विषय में सोचना पड़ेगा।

पुनश्चः कभी कभी हिन्दी ब्लोगिंग की दशा देखकर इतनी निराशा छा जाती है कि नकारात्मक बातें सूझने लगती हैं किन्तु रंजन जी की टिप्पणी ने मुझे संबल प्रदान किया है और मैं "रामचरितमानस" पर ब्लोग अवश्य बनाऊँगा।

Sunday, June 6, 2010

वैदिक कर्मकाण्ड के सोलह संस्कार

बस सुना था कि वैदिक कर्मकाण्ड में मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कार के प्रावधान हैं किन्तु उनमें से मात्र तीन चार के नाम ही जानता था। उत्सुकतावश नेट को खंगाला तो जो कुछ भी जानकारी मिली उसे इस पोस्ट में प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा करता हूँ कि अधिक जानकारी वाले लोग अवश्य ही इस विषय में मुझे और भी ज्ञान प्रदान करेंगे।

वैदिक कर्मकाण्ड के अनुसार निम्न सोलह संस्कार होते हैं:

गर्भाधान संस्कारः उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये प्रथम संस्कार।

पुंसवन संस्कारः गर्भस्थ शिशु के बौद्धि एवं मानसिक विकास हेतु गर्भाधान के पश्चात्् दूसरे या तीसरे महीने किया जाने वाला द्वितीय संस्कार।

सीमन्तोन्नयन संस्कारः माता को प्रसन्नचित्त रखने के लिये, ताकि गर्भस्थ शिशु सौभाग्य सम्पन्न हो पाये, गर्भाधान के पश्चात् आठवें माह में किया जाने वाला तृतीय संस्कार।

जातकर्म संस्कारः नवजात शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना हेतु किया जाने वाला चतुर्थ संस्कार।

नामकरण संस्कारः नवजात शिशु को उचित नाम प्रदान करने हेतु जन्म के ग्यारह दिन पश्चात् किया जाने वाला पंचम संस्कार।

निष्क्रमण संस्कारः शिशु के दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करने की कामना के लिये जन्म के तीन माह पश्चात् चौथे माह में किया जाने वला षष्ठम संस्कार।

अन्नप्राशन संस्कारः शिशु को माता के दूध के साथ अन्न को भोजन के रूप में प्रदान किया जाने वाला जन्म के पश्चात् छठवें माह में किया जाने वाला सप्तम संस्कार।

चूड़ाकर्म (मुण्डन) संस्कारः शिशु के बौद्धिक, मानसिक एवं शारीरिक विकास की कामना से जन्म के पश्चात् पहले, तीसरे अथवा पाँचवे वर्ष में किया जाने वाला अष्टम संस्कार।

विद्यारम्भ संस्कारः जातक को उत्तमोत्तम विद्या प्रदान के की कामना से किया जाने वाला नवम संस्कार।

कर्णवेध संस्कारः जातक की शारीरिक व्याधियों से रक्षा की कामना से किया जाने वाला दशम संस्कार।

यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कारः जातक की दीर्घायु की कामना से किया जाने वाला एकादश संस्कार।

वेदारम्भ संस्कारः जातक के ज्ञानवर्धन की कामना से किया जाने वाला द्वादश संस्कार।

केशान्त संस्कारः गुरुकुल से विदा लेने के पूर्व किया जाने वाला त्रयोदश संस्कार।

समावर्तन संस्कारः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से किया जाने वाला चतुर्दश संस्कार।

पाणिग्रहण संस्कारः पति-पत्नी को परिणय-सूत्र में बाँधने वाला पंचदश संस्कार।

अन्त्येष्टि संस्कारः मृत्योपरान्त किया जाने वाला षष्ठदश संस्कार।

उपरोक्त सोलह संस्कारों में आजकल नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म (मुण्डन), यज्ञोपवीत (उपनयन), पाणिग्रहण और अन्त्येष्टि संस्कार ही चलन में बाकी रह गये हैं।

Saturday, June 5, 2010

कहीं धोखा तो नहीं खा रहे हैं आप?

इस चित्र को देखकर क्या लग रहा है आपको? देखिये, सच सच बताइयेगा। आप यही सोच रहे हैं ना कि ....

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पर आप जो सोच रहे हैं वह कहीं गलत तो नहीं है? कहीं धोखा तो नहीं खा रहे हैं आप?

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Friday, June 4, 2010

आइना वही रहता है चेहरे बदल जाते हैं

"क्या करना है साहब लड़के को ज्यादा पढ़ा लिखाकर? आखिर करना तो उसे किसानी ही है। चिट्ठी-पत्री बाँचने लायक पढ़ ले यही बहुत है।" यह बात हमसे गाँव के एक गरीब किसान ने कही थी जब हमने उसे अपने बच्चे को खूब पढ़ाने-लिखाने की सलाह दी थी।

दूसरी ओर शहर में एक गरीब भृत्य का कहना है कि "चाहे जो हो साहब, भले ही उधारी-बाड़ी ही क्यों ना करना पड़े, पर मैं अपने लड़के को कम से कम ग्रेजुएट तो कराउँगा ही।"

शिक्षा वही है किन्तु एक की निगाह में उसका मान (value) अलग है और दूसरे की निगाह में अलग।

जब मैं फील्ड आफीसर था तो एक बार किसी गाँव में एक किसान के घर में जूते पहने हुए घुस गया। वह गरीब किसान मुझसे कुछ कह तो नहीं सका किन्तु उसकी नजरों ने मुझे बता दिया कि मेरा जूते पहने हुए उसके घर के भीतर घुस जाना उसे बहुत ही नागवार गुजरा था। जूते पहन कर घर के भीतर चले आना उसके विचार से अभद्रता थी। तत्काल मैंने उससे माफी माँगी और बाहर आकर जूते उतारने के बाद उसके घर के भीतर घुसा। परिणाम यह हुआ कि जिस किसान के मन में अभी एक मिनट पहले ही मेरे प्रति तुच्छ भाव थे वही अब मुझे बहुत अधिक हार्दिक सम्मान दे रहा था। इस घटना से मुझे बहुत बड़ी सबक मिली और उसके बाद जब कभी भी मैं किसी गाँव में किसी किसान के घर जाता था तो पहले जूते उतार दिया करता था।

व्यक्ति, वस्तु, गुण आदि भी एक आइना के मानिंद होते हैं। जिस प्रकार से आइनें आदमी को अपना चेहरा दिखता है उसी प्रकार से व्यक्ति, वस्तु, गुण आदि में भी आदमी को अपने ही विचार दिखते हैं। ये आदमी के भीतर के विचार ही किसी व्यक्ति, वस्तु, गुण आदि का मान (value) तय करते हैं। जी.के. अवधिया वही होता है किन्तु कोई उसे "गुरुदेव" सम्बोधन करता है और कोई उसे "चश्मेबद्दूर" (चश्माधारी खूँसट बुड्ढा) कहता है। याने कि अलग-अलग लोगों के लिये जी.के. अवधिया का अलग-अलग मान है। अब कल के मेरे पोस्ट "खुशखबरी... खुशखबरी... खुशखबरी... ब्लोगिंग से कमाई शुरू" का मान (value) भी किसी के लिये कुछ है तो किसी के लिये कुछ। जहाँ श्री सुरेश चिपलूनकर जी टिप्पणी करते हैं:

चलिये रेट फ़िक्स करके आपने पहल तो की, अब हम जैसे फ़ॉलोअर भी अपने ब्लॉग के रेट्स तय करते हैं…, धन्यवाद आपका…
वहीं श्री जनक (ये कौन हैं कह नहीं सकता क्योंकि उनका प्रोफाइल नदारद है) का विचार हैः
अवधिया जी आप क्या हो मई समझ नहीं पाया !
पोस्ट का शीर्षक क्या लगा रखा है और लिखा है एकदम घटिया मजाक
क्या सोच है आपकी ,,,,हे भगवान् अब यही सब होगा कोई समझाओ
अब मैं यदि चिपलूनकर जी की टिप्पणी पढ़कर फूलकर कुप्पा हो जाऊँ और दूसरी टिप्पणी पढ़कर आग-बबूला हो जाऊँ तो क्या यह मेरी मूर्खता नहीं होगी?

जो भी व्यक्ति इस मान (value) को अच्छी प्रकार से समझ लेता है उसे भले बुरे की समझ भी अपने आप आ जाती है।

जीवन में घटने वाली छोटी छोटी बातों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं यदि सीखना चाहें तो।

हम सबको मिलकर अभी ब्लोगिंग का भी मान तय करना है क्योंकि मेरे जैसा ही आप सभी ने अनुभव किया होगा कि ब्लोगिंग का मान भी अलग-अलग ब्लोगर की नजर में अलग-अलग है, किसी के लिये यह मात्र मौज मजा का साधन है तो किसी के लिये भाषा, साहित्य, समाज आदि की सेवा, किसी के लिये यह अधिक से अधिक टिप्पणी पाना है तो किसी के लिये अधिक से अधिक पाठक पाना, किसी और के कुछ और है तो किसी और के लिये कुछ और ....

Thursday, June 3, 2010

खुशखबरी... खुशखबरी... खुशखबरी... ब्लोगिंग से कमाई शुरू

आप तो जानते ही हैं कि आजकल विज्ञापन का जमाना है और आप विज्ञापन के महत्व को भी अच्छी तरह से समझते हैं। ये विज्ञापन चीज ही ऐसी है कि किसी उत्पाद को बाजार में आने के पहले ही सुपरहिट बना देती है। अच्छे से अच्छा उत्पाद विज्ञापन के अभाव में पिट जाता है और सामान्य से भी कम गुणवत्ता वाला उत्पाद विज्ञापन के बदौलत हिट हो जाता है। तो फिर आखिर अपने ब्लोग का अन्य ब्लोग में विज्ञापन करने में बुराई ही क्या है?

इसीलिये हमने निश्चय किया है कि आप हमारे पोस्टों में टिप्पणी करते हुए अपने ब्लोग का विज्ञापन कर सकते हैं, और वह भी बहुत सस्ते दर पर। विज्ञापन के दर इस प्रकार हैं:

  • बिना किसी लिंक के प्रचार वाली टिप्पणी के लिये रु.100 मात्र
  • आपकी टिप्पणी में एक लिंक के लिये रु.200 मात्र
  • आपकी टिप्पणी में दो लिंक के लिये रु.300 मात्र
  • आपकी टिप्पणी में तीन से पाँच लिंक के लिये रु.500 मात्र
  • हमारे ब्लोग के साइडबार में आपके ब्लोग का विजेट लगाने के लिये रु.2000 प्रतिमाह मात्र
सीमित संख्या में ही विज्ञापन स्वीकार किये जायेंगे अतः शीघ्रता करें अन्यथा बाद में पछताना पड़ेगा।

कृपया विज्ञापन देने से पहले हमसे सम्पर्क कर लें ताकि हम आपको अग्रिम भुगतान के तरीके के विषय में बता दें।

टिप्पणी में लिंक देकर विज्ञापन के आरम्भ होने के कारण आज से टिप्पणी मॉडरेशन शुरू किया जा रहा है। विज्ञापन वाले उन्हीं टिप्पणियों को प्रकाशित किया जायेगा जिनके लिये भुगतान अग्रिम रूप से प्राप्त हो चुका रहेगा।

आप लोगों ने शायद गौर किया होगा कि आजकल यह रवैया बन गया है कि लोग पोस्ट को पढ़ें या ना पढ़ें किन्तु टिप्पणी अवश्य करते हैं। टिप्पणी कर के लिये लोग पापा, दादा, अनामी, बेनामी कुछ भी बन सकते हैं। याने कि टिप्पणी करके अपना प्रचार करना या फिर दिल की भड़ास निकालना एक शौक बन गया है। टिप्पणी करने वाले इस शौक को छोड़ कर सभी शौक को पूरा करने के लिये आखिर खर्च तो करना ही पड़ता है तो फिर टिप्पपणी वाली यह शौक ही क्यों फोकट में पूरी हो। कम से कम हमारे ब्लोग में तो यह शौक आज से फोकट में पूरा नहीं होगा। यही सोचकर हमने इस प्रकार के विज्ञापन की योजना बनाई है ताकि लोगों का शौक भी पूरा होता रहे और हमें भी कुछ आमदनी हो जाये। खैर आमदनी तो क्या होगी, क्योंकि लोगो खर्च करने का नाम सुनकर ही ऐसे गायब हो जायेंगे जैसे कि "गधे के सिर से सींग",  पर हाँ अवांछित टिप्पणियों से जरूर कुछ ना कुछ छुटकारा मिल जायेगा।

Wednesday, June 2, 2010

जरा जोड़ कर बताइये तो... नहीं जोड़ पाये ना?

जरा जोड़ कर बताइये तो -

III
VII
IX
I
+ L XI V
‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‌‌‌‌----------

नहीं जोड़ पाये ना? अच्छा अब जोड़िये -

03
07
09
01
66

अब तो आपने तत्काल जोड़कर बता दिया कि इनका का जोड़ 86 है। पर इन्हीं संख्याओं को पहले वाले रूप में जोड़ने के लिये कहा गया तो नहीं बता पाये थे कि जोड़ L XXX VI है। पहली बार जो सवाल आपको मुश्किल लग रहा था वही दूसरी बार आपको सरल इसलिये लगने लग गया क्योंकि संख्याओं को दशमलव पद्धति में लिखा गया था। किन्तु आपको यह जानकर बहुत आश्चर्य होगा कि दशमलव पद्धति के आरम्भ होने के पहले भी हिसाब-किताब हुआ करता था। याने कि हजारों-लाखों साल तक लोग बगैर शून्य और दशमलव पद्धति के जोड़-घटाना-गुणा-भाग आदि करते रहे हैं। बहुत ही जटिल और समय-खाऊ होता था वह गणित।

जोड़-घटाना-गुणा-भाग का आधार गिनती है। क्या कभी आपने सोचा भी है कि गिनती की शुरुआत कब, क्यों और कैसे हुई?

मानव आरंभ से ही सामाजिक प्राणी रहा है। प्रगैतिहासिक काल में जब मानव गुफाओं में रहा करता था तब भी उनके समूह हुआ करते थे। जब तक ये समूह छोटे रहे, किसी प्रकार की गिनती की आवश्यकता नहीं थी। दिन भर भोजन की टोह में इधर-उधर भटकने के बाद जब समूह के सदस्य वापस इकट्ठे होते थे तो समूह के सरदार को आभास हो जाया करता था कि पूरे सदस्य आ गये हैं या कोई सदस्य कम है।

किन्तु जब समूह के सदस्यों की संख्या में वृद्धि होने लगी तो मानवीय आभास से काम चलाना मुश्किल हो गया और उन्हें गिनती की आवश्यकता हुई। सर्वप्रथम मनुष्यों ने अपने हाथों की उंगलियों को गिनती का आधार बनाया। बाद में सदस्यों की संख्या में और वृद्धि होने पर पैरो की उंगलियों को भी गिनती में शामिल कर लिया। संख्या में निरंतर वृद्धि के कारण उन्हें अंकों तथा संख्याओं के लिये संकेत बनाने पड़े।

आज भी उस प्रकार के संकेतों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि I, II...., V...., X...., L...., C...., आदि। अब यदि देखें तो इन संकेतों का आधार पाँच का अंक है जैसे V, X, L, C। मनुष्य के एक हाथ में पाँच उंगलियाँ होने के कारण ही पाँच को अंको और संख्याओं का आधार बनाया गया। शून्य की जानकारी न होने के कारण इन्हीं संकेतों के द्वारा हजारों-लाखों वर्षों तक गणितीय गणना की जाती रही है।

फिर शून्य का अविष्कार हुआ। हमारे लिये जहाँ यह गौरव की बात है कि शून्य भारत की ही देन है वहीं यह क्षोभ की बात है कि हम आज तक उस महान गणितज्ञ का नाम भी नहीं जानते जिन्होंने शून्य का अविष्कार किया। कहा जाता है कि शून्य का अविष्कार नवीं शताब्दी में हुआ था। उस काल में हिन्दु धर्म के मुख्य रूप से तीन सम्प्रदाय, वैष्णव, शैव और शाक्त, हुआ करते थे। इन तीनों सम्प्रदायों के अनुयायी स्वयं के सम्प्रदाय को महान तथा अन्य सम्प्रदायों को तुच्छ मानकर आपस में झगड़ा किया करते थे। उसी समय जैन सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इस नये प्रतियोगी को नीचा दिखाने के लिये पहले के तीनों सम्प्रदाय एक हो गये। अनुमान किया जाता है कि शून्य का आविष्कार करने वाला गणितज्ञ जैन सम्प्रदाय का अनुयायी था और इसीलिये उनके नाम को कभी भी आगे आने नहीं दिया गया।

लोगों को शून्य का प्रयोग करके गणितीय गणना करना बहुत सरल लगा और शून्य का प्रयोग जोरों से किया जाने लगा। किन्तु शासक के जैन सम्प्रदाय विरोधी होने के कारण शून्य के प्रयोग को राजकीय रूप से मान्यता नहीं दी गई। व्यापारियों को अपने हिसाब-किताब पुरानी पद्धति में ही रखने के राजकीय आदेश दिये गये। अतः एक परपाटी यह चल गई कि कच्चे में शून्य का प्रयोग करके हिसाब किया जाये और पक्के में पुरानी पद्धति से लिखा जाये। चूँकि लिखने का काम भोज पत्र पर हुआ करता था अतः भोज पत्र की खपत कम करने के लिये कच्चे में हिसाब करने के लिये जमीन के एक टुकड़े को लिप पोत कर चिकना बना दिया जाता था और उस पर महीन राख की परत बिछा दी जाती थी। उंगलियों से लिखकर हिसाब किया जाता था। पक्के में पुरानी पद्धति में उतार लेने के बाद जमीन में बनाई गई राख की स्लेट को फिर से लिखने लायक बना लिया जाता था।

उस काल में व्यापार करने के लिये भारत में अरब देशों के व्यापारी आया करते थे। शून्य का प्रयोग करके गणना करने की सरलता ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया और वे हमारे अंको को अपने देश ले गये। चूँकि राख को अरबी भाषा में गुबार कहा जाता है, उन्होंने यहाँ से ले जाये गये अंको का नाम गुबार अंक रखा। गुबार अंक अरब देशों से मिश्र पहुँच गया। इस प्रकार आगे बढते-बढते हमारे ये अंक अलग-अलग नामों तथा संकेतों के साथ पूरे यूरोप में पहुँच गये। कालान्तर में जब अंग्रेजों ने भारत के शासन को हथिया लिया, तब हमारे यही अंक अंग्रेजी अंको के रूप में हमारे सामने आये।

बाद में गणितज्ञों के शोध कार्यों से सिद्ध हो गया कि अंग्रेजी अंक वास्तव में अंग्रेजी न होकर भारतीय है। इन अंकों को 'भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप' नाम दिया गया जिसे पूरे विश्व ने स्वीकार किया।

Tuesday, June 1, 2010

अब रोज-रोज तो कुछ सूझता नहीं इसलिये आज अगड़म-बगड़म लिख रहा हूँ ... जो पढ़ें उसका भी भला, जो ना पढ़ें उसका भी भला

अजब रोग है ये ब्लोगिंग भी। रोज ही एक पोस्ट लिखने का नशा लगा दिया है इसने हमें। पर आदमी अगर रोज-रोज लिखे भी तो क्या लिखे? कभी-कभी कुछ सूझता ही नहीं तो अगड़म-बगड़म कुछ भी लिख कर पोस्ट प्रकाशित कर देता है। तो आज हम भी ऐसे ही कुछ अगड़म-बगड़म लिख रहे हैं, जिसे पढ़ना हो पढ़े ना पढ़ना हो ना पढ़े। अपना क्या जाता है।

तो पेश है अगड़म-बगड़मः

विचित्र प्राणी है मनुष्य। संसार के समस्त प्राणियों से बिल्कुल अलग-थलग। यह एक ऐसा प्राणी जो जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक खर्च करवाता है। ईश्वर ने इस पर विशेष अनुकम्पा कर के इसे बुद्धि प्रदान की है ताकि यह इस बुद्धि का सदुपयोग करे किन्तु यह प्रायः बुद्धि का सदुपयोग करने के स्थान पर दुरुपयोग ही करता है। सत्ता, महत्ता और प्रभुता प्राप्त करने के लिये यह कुछ भी कर सकता है।

मनुष्य यदि ऊपर उठना चाहे तो देवताओं से भी ऊपर जा सकता है और नीचे गिरना चाहे तो पशुओं से भी निकृष्ट बन सकता है इसीलिये मैथिलीशरण गुप्त जी ने पंचवटी में कहा हैः

मैं मनुष्यता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूँ
किन्तु मनुष्य को पशु कहना भी कभी नहीं सह सकता हूँ